आधुनिक हिंदी कविता के जाने माने हस्ताक्षर थे कवि पंकज सिंह । विगत २६ दिसम्बर २०१५ को उनका देहावसान हो गय। पंकज जी बिहार के मुझफ्फरपुर में जन्मे थे। उनका जन्म १४ जुलाई १९५० में हुआ था । पंकज जी बहुआयामी प्रतिभा संपन्न व्यक्ति थे। वे सहज एवं मिलनसार थे। उनकी रचना जनसरोकार से सम्बध्द रहती थी । बाद में वे दिल्ली में ही रहने लगे थे । अन्य संस्थाओं के अतिरिक्त ये बी बी सी लन्दन की विदेश सेवा में प्रोड्यूसर के रूप में काम करने लगे। इनकी कविता संग्रह आहटें आसपास और जैसे पवन पानी चर्चित है। इनकी कविताओं का अन्य कई भाषा में अनुवाद भी हुआ । अपने पटना प्रवास में वे मेरे आवास पर आए थे। आज उनकी स्मृति सहज ही मन को झकझोड़ गई । उनकी यशः काय को नमन।
यह ब्लाग समय समय पर विभिन्न घटनाअओं पर मेरे द्वारा व्यक्त प्रतिक्रियाअओं से आपको अवगत कराता है।
Sunday, December 27, 2015
Thursday, March 5, 2015
फगुनाहट चहु दिस छाए
मन के कुम्हलाए पत्ते,
फागुन में झर जाए रे
फगुनाहट सिर चढ़ बोले एसे,
कोमल-कोमल नव-नव पल्लव
फिर से मन में खिल जाए रे,
देखो,
ऐसी फगुनाहट चहु दिस छाए रे.....।
टूट जाए सारे बंधन,
प्रेम रंग बस भाए रे,
देखो,
ऐसी फगुनाहट चहु दिस छाए रे.....।
सरसों के पीले-पीले,
चटकीले रंग भाए रे,
आम के मंजर सोन्ही सुगन्ध
चहुदिस फिर बिखराए रे
महुए की मंद-मंद मादकता
मन को फिर अलसाए रे,
रग-रग सब का अगराए,
बउराए, मदमाए रे,
देखो,
ऐसी फगुनाहट चहु दिस छाए रे....
अंग-अंग इतराए,
बासंती रग-रग छाए,
कोना-कोना इस आँगन का,
कण-कण में अलस जगाए रे
उमंग में भर-भर सुगवा-सुगवी
जहँ-तहँ चोंच मिलाए रे,
रग-रग फूटे फुलझरी,
मन भीतर भीतर मुस्काए रे।
देखो,
ऐसी फगुनाहट चहुदिस छाए रे.....।
तुम भी तज दो,
मन की सब करूअहट
भेद-भाव बिसराए रे,
फागुन के रंग में अबकी
रग-रग रंग जाए रे,
देखो,
ऐसी फगुनाहट चहुदिस छाए रे.....।
साँस-साँस के भेद मिटे
यौवन दिन घुर जाए रे
एक दूजे को गले लगालो
जो जिसके मन भाए रे,
देखो
ऐसी फगुनाहट चहु दिस छाए रे.....।
उड़े गुलाल की फुलझरी, चहुदिस
सिंदुरी छटा गेहुँए कपोल पे छाए रे,
बरसे फुहार रंग के निखार
तन-मन भींगे सकुचाए रे
ऐसी पिचकारी मारो अबकी
खाली नहीं कोई जाए रे।
देखो,
ऐसी फगुनाहट चहु दिस छाए रे.....।
मन के कुम्हलाए पत्ते,
फागुन में झर जाए रे
फगुनाहट सिर चढ़ बोले एसे,
कोमल-कोमल नव-नव पल्लव
फिर से मन में खिल जाए रे,
देखो,
ऐसी फगुनाहट चहु दिस छाए रे.....।
टूट जाए सारे बंधन,
प्रेम रंग बस भाए रे,
देखो,
ऐसी फगुनाहट चहु दिस छाए रे.....।
सरसों के पीले-पीले,
चटकीले रंग भाए रे,
आम के मंजर सोन्ही सुगन्ध
चहुदिस फिर बिखराए रे
महुए की मंद-मंद मादकता
मन को फिर अलसाए रे,
रग-रग सब का अगराए,
बउराए, मदमाए रे,
देखो,
ऐसी फगुनाहट चहु दिस छाए रे....
अंग-अंग इतराए,
बासंती रग-रग छाए,
कोना-कोना इस आँगन का,
कण-कण में अलस जगाए रे
उमंग में भर-भर सुगवा-सुगवी
जहँ-तहँ चोंच मिलाए रे,
रग-रग फूटे फुलझरी,
मन भीतर भीतर मुस्काए रे।
देखो,
ऐसी फगुनाहट चहुदिस छाए रे.....।
तुम भी तज दो,
मन की सब करूअहट
भेद-भाव बिसराए रे,
फागुन के रंग में अबकी
रग-रग रंग जाए रे,
देखो,
ऐसी फगुनाहट चहुदिस छाए रे.....।
साँस-साँस के भेद मिटे
यौवन दिन घुर जाए रे
एक दूजे को गले लगालो
जो जिसके मन भाए रे,
देखो
ऐसी फगुनाहट चहु दिस छाए रे.....।
उड़े गुलाल की फुलझरी, चहुदिस
सिंदुरी छटा गेहुँए कपोल पे छाए रे,
बरसे फुहार रंग के निखार
तन-मन भींगे सकुचाए रे
ऐसी पिचकारी मारो अबकी
खाली नहीं कोई जाए रे।
देखो,
ऐसी फगुनाहट चहु दिस छाए रे.....।
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