फोन व्रत
कुछ दिन पहले की बात है। मैं ने अपने कनिष्ठ पुत्र को फोन लगाया। बात नहीं हो सकी। घंटी बजकर रह गया, कोई जबाब नहीं। कुछ देर बाद पुनः फोन लगाया। फिर वही। घंटी बजकर फोन बंद। अब मुझे चिंता होने लगी। मैंने अपने बड़े भाई से कहा, 'मुझे अमृत से बात नहीं सकी। उसे सबेरे भी फोन किया था। व्हाट्सएप पर भी फोन लगाया। लेकिन वह आफलाइन है। मुझे चिंता होने लगी है। पता नहीं कैसा है वह? उसकी तबीयत ठीक है कि नहीं? अकेले रहता है। मेरे भाई साहब ने कहा, व्यर्थ इतनी चिंता करते हैं आप। सब अच्छा ही होगा, यह क्यों नहीं सोचते। ये दुष्चिन्ताएँ ठीक नहीं।
मैं ने कहा- आप ठीक ही कह रहे हैं। स्नेही मन अनिष्टाशंकी होता है।
अंततः रात नौ बजे उससे मेरी बात हो गई। मैं ने छूटते ही कहा, फोन नहीं उठाते हो? ठीक हो न? हाँ, ठीक हूँ। क्यों क्या हुआ? मैंने कहा फोन नहीं उठाए तो चिंता होने लगी। उसने अपनी खीझ दबाते हुए कहा- ईतनी चिंता क्यों करने लगते हैं? आज आफिस नहीं था तो मैं कुछ देर सो गया था। फोन को मैंने साइलेंट कर दिया था।
एकाएक मन में विचार आया सच ही तो कहता है, अकारण इतनी दुश्चिंताएँ क्यों होने लगी है?
चिंतन का क्रम चल पड़ा। अपनी ही उन दिनों की बात याद आने लगी। वो जमाना याद आया जब महीना, दो महीना, तीन-तीन महीने भी किसी का कोई समाचार नहीं मिलता था। लोग निश्चिंत रहते थे। माँ-बाप गाँव में रहते थे। बाल-बच्चे बाहर रहते थे। पढ़ते थे, नौकरी करते थे। डाकिया पत्र लेकर आता था, हाल समाचार मिल जाता था। जिस दिन चिट्ठी आती थी वह दिन उत्सव जैसा होता था। बस उसी की चर्चा। लोग शांति से रहते थे। सब अपनी-अपनी जगह। कुशल क्षेम के लिए आश्वस्त।
प्रश्न यह है कि आखिर इतनी दुश्चिंताएँ क्यों? मन दुश्चिंताओं से, आशंकाओं से क्यों घिरा रहता है। मुझे याद आता है वह पत्र जो हम बचपन में लिखा करते थे। स्वस्ति पूज्यवर बाबूजी, सादर प्रणाम या सादर चरण स्पर्श। मैं यहाँ कुशल पूर्वक हूँ। आशा है आप लोग भी स्वस्थ एवं प्रसन्न होंगे। इश्वर से सतत् आपलोगों के कुशलता की कामना करता हूँ। और इसके बाद वो तमाम बातें, जीवन-जगत की, अपनी नौकरी चाकरी की। गाँव-घर की। अनेक विचार, सुखदुखात्मक भावाभिव्यक्तियाँ। वह चिट्ठी तीन महीने का खुराक होता था। माता-पिता आश्वस्त रहते थे कि सभी सुखी हैँ, स्वस्थ्य हैं। बाल-बच्चे निश्चिंत कि सब अच्छा ही होगा। यह बहुत बड़ी बात थी, जो आज बदल गई है। प्रश्न उठता है यह निश्चिंतता कहाँ गुम हो गई? वह चैनियत किसने छीन लिया? इस पर सोचने के लिए मन विवश है। ऐसा नहीं कि पहले लोगों को चिंताएँ नहीं सताती थीं, लेकिन उसका स्वरूप इतनी बेचयनी भरा नहीं होता था। आजकल प्रतिदिन कुछ नयी बात, नवीन आशंकाओं से भरा मन।टीवी देखने बैठें तो भी मन आशंकाओं से घिरा रहता है। अगले क्षण क्या सुनने को मिले। फोन की प्रतीक्षा भी रहती है और फोन की घंटी बजी तो मन में विचार आता है कि पता नहीं क्या हो। आखिर वह कौन सी ऐसी चीज है जिसने यह बेचैनी दी है हमें। रोज खबर मिले, रोज बात हो और यदि न हो सके तो दुश्चिंताओं से ही क्यों मन घिर जाता है। सामान्य बातें, सामान्य परिस्थितियाँ भी हो सकती हैं। ऐसी सोच दिमाग में क्यों नहीं आती है। बात-बात में हम चिंतित हो जाते हैं, तनाव में आ जाते हैं। यह जो बेचैनी है मन की, यह बेचैनी कहाँ से आ रही है? कहाँ से उपज रही है? परिवार में, समाज में पैर पसार रहे इस बेचैनी का कारण क्या है? कौन हमारी मानसिक तनाव को बढ़ा रहा है? मन की शांति भंग कर रहा है? इसका मुख्य कारण संचार क्रांति तो नहीं? सूचनाओं का विस्फोट तो नहीं। उसका प्रवेश मोबाइल के रूप में घर-घर में हो गया है। हर व्यक्ति में हो गया है और मन की शांति छीन रहा है। कहीं यह हमारे मस्तिष्क के संतुलन को बिगाड़ तो नहीं रहा? क्रमशः हमारी चिंतन प्रक्रिया को प्रभावित तो नहीं कर रहा। हमारे सुख-चैन, हमारी नींद में खलल तो नहीं डाल रहा।? ऐसे अनेक प्रश्न हैं जो चिंतन को विवश कर रहे हैं। शायद आप भी कभी ऐसी मनःस्थिति से गुजड़े हों? कभी आपको भी अकारण दुश्चिंता हुई हो? आप भी सोचियेगा।
मैंने तो इस बेचैनी के उपचार का एक उपाय सोचा है। मैं सप्ताह में एक दिन का फोन व्रत रखूँगा। उसदिन फोन बंद।
कलानाथ मिश्र