Wednesday, August 21, 2024

फोन व्रत

 फोन व्रत

कुछ दिन पहले की बात है। मैं ने अपने कनिष्ठ पुत्र को फोन लगाया। बात नहीं हो सकी। घंटी बजकर रह गया, कोई जबाब नहीं। कुछ देर बाद पुनः फोन लगाया। फिर वही। घंटी बजकर फोन बंद। अब मुझे चिंता होने लगी। मैंने अपने बड़े भाई से कहा, 'मुझे अमृत से बात नहीं सकी। उसे सबेरे भी फोन किया था। व्हाट्सएप पर भी फोन लगाया। लेकिन वह आफलाइन है। मुझे चिंता होने लगी है। पता नहीं कैसा है वह? उसकी तबीयत ठीक है कि नहीं? अकेले रहता है। मेरे भाई साहब ने कहा, व्यर्थ इतनी चिंता करते हैं आप। सब अच्छा ही होगा, यह क्यों नहीं सोचते। ये दुष्चिन्ताएँ ठीक नहीं।
मैं ने कहा- आप ठीक ही कह रहे हैं। स्नेही मन अनिष्टाशंकी होता है।
अंततः रात नौ बजे उससे मेरी बात हो गई। मैं ने छूटते ही कहा, फोन नहीं उठाते हो? ठीक हो न? हाँ, ठीक हूँ। क्यों क्या हुआ? मैंने कहा फोन नहीं उठाए तो चिंता होने लगी। उसने अपनी खीझ दबाते हुए कहा- ईतनी चिंता क्यों करने लगते हैं? आज आफिस नहीं था तो मैं कुछ देर सो गया था। फोन को मैंने साइलेंट कर दिया था।
एकाएक मन में विचार आया सच ही तो कहता है, अकारण इतनी दुश्चिंताएँ क्यों होने लगी है?
चिंतन का क्रम चल पड़ा। अपनी ही उन दिनों की बात याद आने लगी। वो जमाना याद आया जब महीना, दो महीना, तीन-तीन महीने भी किसी का कोई समाचार नहीं मिलता था। लोग निश्चिंत रहते थे। माँ-बाप गाँव में रहते थे। बाल-बच्चे बाहर रहते थे। पढ़ते थे, नौकरी करते थे। डाकिया पत्र लेकर आता था, हाल समाचार मिल जाता था। जिस दिन चिट्ठी आती थी वह दिन उत्सव जैसा होता था। बस उसी की चर्चा। लोग शांति से रहते थे। सब अपनी-अपनी जगह। कुशल क्षेम के लिए आश्वस्त।
प्रश्न यह है कि आखिर इतनी दुश्चिंताएँ क्यों? मन दुश्चिंताओं से, आशंकाओं से क्यों घिरा रहता है। मुझे याद आता है वह पत्र जो हम बचपन में लिखा करते थे। स्वस्ति पूज्यवर बाबूजी, सादर प्रणाम या सादर चरण स्पर्श। मैं यहाँ कुशल पूर्वक हूँ। आशा है आप लोग भी स्वस्थ एवं प्रसन्न होंगे। इश्वर से सतत् आपलोगों के कुशलता की कामना करता हूँ। और इसके बाद वो तमाम बातें, जीवन-जगत की, अपनी नौकरी चाकरी की। गाँव-घर की। अनेक विचार, सुखदुखात्मक भावाभिव्यक्तियाँ। वह चिट्ठी तीन महीने का खुराक होता था। माता-पिता आश्वस्त रहते थे कि सभी सुखी हैँ, स्वस्थ्य हैं। बाल-बच्चे निश्चिंत कि सब अच्छा ही होगा। यह बहुत बड़ी बात थी, जो आज बदल गई है। प्रश्न उठता है यह निश्चिंतता कहाँ गुम हो गई? वह चैनियत किसने छीन लिया? इस पर सोचने के लिए मन विवश है। ऐसा नहीं कि पहले लोगों को चिंताएँ नहीं सताती थीं, लेकिन उसका स्वरूप इतनी बेचयनी भरा नहीं होता था। आजकल प्रतिदिन कुछ नयी बात, नवीन आशंकाओं से भरा मन।टीवी देखने बैठें तो भी मन आशंकाओं से घिरा रहता है। अगले क्षण क्या सुनने को मिले। फोन की प्रतीक्षा भी रहती है और फोन की घंटी बजी तो मन में विचार आता है कि पता नहीं क्या हो। आखिर वह कौन सी ऐसी चीज है जिसने यह बेचैनी दी है हमें। रोज खबर मिले, रोज बात हो और यदि न हो सके तो दुश्चिंताओं से ही क्यों मन घिर जाता है। सामान्य बातें, सामान्य परिस्थितियाँ भी हो सकती हैं। ऐसी सोच दिमाग में क्यों नहीं आती है। बात-बात में हम चिंतित हो जाते हैं, तनाव में आ जाते हैं। यह जो बेचैनी है मन की, यह बेचैनी कहाँ से आ रही है? कहाँ से उपज रही है? परिवार में, समाज में पैर पसार रहे इस बेचैनी का कारण क्या है? कौन हमारी मानसिक तनाव को बढ़ा रहा है? मन की शांति भंग कर रहा है? इसका मुख्य कारण संचार क्रांति तो नहीं? सूचनाओं का विस्फोट तो नहीं। उसका प्रवेश मोबाइल के रूप में घर-घर में हो गया है। हर व्यक्ति में हो गया है और मन की शांति छीन रहा है। कहीं यह हमारे मस्तिष्क के संतुलन को बिगाड़ तो नहीं रहा? क्रमशः हमारी चिंतन प्रक्रिया को प्रभावित तो नहीं कर रहा। हमारे सुख-चैन, हमारी नींद में खलल तो नहीं डाल रहा।? ऐसे अनेक प्रश्न हैं जो चिंतन को विवश कर रहे हैं। शायद आप भी कभी ऐसी मनःस्थिति से गुजड़े हों? कभी आपको भी अकारण दुश्चिंता हुई हो? आप भी सोचियेगा।
मैंने तो इस बेचैनी के उपचार का एक उपाय सोचा है। मैं सप्ताह में एक दिन का फोन व्रत रखूँगा। उसदिन फोन बंद।
कलानाथ मिश्र

Thursday, April 22, 2021

भाषा के अभिलक्षण bhasha ke abhilakshan

भाषा का अभिलक्षण (property of the language)
स्तुत व्याख्यान प्रो. कलानाथ मिश्र द्वारा हिन्दी के स्नातक, स्नातकोत्तर एवं विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं के अभ्यर्थियों को ध्यान मे रखकर निर्मित किया गया है। यह व्याख्यान अनेक विद्वानों के मत के आधार पर तथा विभिन्न पुस्तकों से सामग्री एकत्र कर बनाया गया है । आशा है यह विडिओ आपको परितोष देने मे समर्थ होगा । इस विडिओ व्याख्यान के आधार पर छात्र परीक्षा की दृष्टि से नोट्स तैयार कर सकते हैं | अतः इसके लिए सम्पूर्ण विडिओ दो -तीन बार देखें | अपना मन्तव्य भी अवश्य टिप्पणी के रूप मे दें |
भाषा के अभिलक्षण से तात्पर्य है, भाषा के मूलभूत विशेषताएँ एवं उनके मूल लक्षण। यह किसी वस्तु लक्षण ही होता है, जो किसी वस्तु को अन्य वस्तुओं से अलग करने की क्षमता रखते हैं। इसी तरह भाषा का अभिलक्षण, मानव भाषा को अन्य प्राणियों के भाषाओं से अलग करते हैं। मनुष्य की भाषा अन्य सभी जीवों की भाषाओं से अलग है। जब अम मानवीय भाषा के संदर्भ में बात करते हैं तो यह जानना आवष्यक हो जाता है कि मानवीय भाषा की मूलभूत विषेषताएँ कौन-कौन से हैं। यहाँ हम भाषा के निम्न महत्वपूर्ण अभिलक्षण पर विचार करेंगे।

Sunday, December 27, 2015


आधुनिक हिंदी कविता के जाने माने हस्ताक्षर थे कवि पंकज सिंह । विगत २६ दिसम्बर २०१५ को उनका देहावसान हो गय। पंकज जी बिहार के मुझफ्फरपुर में जन्मे थे। उनका जन्म १४ जुलाई १९५० में हुआ था । पंकज जी बहुआयामी प्रतिभा संपन्न व्यक्ति थे। वे सहज एवं मिलनसार थे। उनकी रचना जनसरोकार से सम्बध्द रहती थी । बाद में वे दिल्ली में ही रहने लगे थे । अन्य संस्थाओं के अतिरिक्त ये बी बी सी लन्दन की विदेश सेवा में प्रोड्यूसर  के रूप में काम करने लगे। इनकी कविता संग्रह आहटें आसपास और जैसे पवन पानी चर्चित है। इनकी कविताओं का अन्य कई भाषा में अनुवाद भी हुआ । अपने पटना प्रवास में वे मेरे आवास पर आए थे। आज उनकी स्मृति सहज ही मन को झकझोड़  गई । उनकी यशः काय को नमन। 

Thursday, March 5, 2015

फागुन की शुभकामनाएं


फगुनाहट चहु दिस छाए

मन के कुम्हलाए पत्ते, 
फागुन में झर जाए रे
फगुनाहट सिर चढ़ बोले एसे,
कोमल-कोमल नव-नव पल्लव 
फिर से मन में खिल जाए रे,
देखो,
ऐसी फगुनाहट चहु दिस छाए रे.....।
टूट जाए सारे बंधन,
प्रेम रंग बस भाए रे,
देखो,
ऐसी फगुनाहट चहु दिस छाए रे.....।

सरसों के पीले-पीले, 
चटकीले रंग भाए रे,
आम के मंजर सोन्ही सुगन्ध 
चहुदिस फिर बिखराए रे
महुए की  मंद-मंद मादकता 
मन को फिर अलसाए रे,
रग-रग सब का अगराए, 
बउराए, मदमाए रे,
देखो,
ऐसी फगुनाहट चहु दिस छाए रे....

अंग-अंग इतराए, 
बासंती रग-रग छाए,
कोना-कोना इस आँगन का, 
कण-कण में अलस जगाए रे
उमंग में भर-भर सुगवा-सुगवी
जहँ-तहँ चोंच मिलाए रे,
रग-रग फूटे फुलझरी,
मन भीतर भीतर मुस्काए रे।
देखो,
ऐसी फगुनाहट चहुदिस छाए रे.....।

तुम भी तज दो, 
मन की सब करूअहट 
भेद-भाव बिसराए रे,
फागुन के रंग में अबकी 
रग-रग रंग जाए रे,
देखो,
ऐसी फगुनाहट चहुदिस छाए रे.....।

साँस-साँस के भेद मिटे
यौवन दिन घुर जाए रे
एक दूजे को गले लगालो
जो जिसके मन भाए रे,
देखो 
ऐसी फगुनाहट चहु दिस छाए रे.....।

उड़े गुलाल की फुलझरी, चहुदिस
सिंदुरी छटा गेहुँए कपोल पे छाए रे,
बरसे फुहार रंग के निखार
तन-मन भींगे सकुचाए रे 
ऐसी पिचकारी मारो अबकी 
खाली नहीं कोई जाए रे।
देखो, 
ऐसी फगुनाहट चहु दिस छाए रे.....।


Thursday, October 24, 2013

मखमली आवाज के गायक मन्ना डे

मखमली आवाज के गायक मन्ना डे जी ने इस दुनिया से विदा ले लिया । उनके नहीं रहने से लाखों संगीत प्रेमियों को गहरा आघात पंहुचा है। आदरणीय मन्ना डे जी की आवाज में एक गजब का चुम्बकीय आकर्षण था । उनके गानों के धुन सहज ही होठों पर थिरकने लगते है। शाश्त्रीय संगीत पर आधारित उनके गानों में जब स्वर लहरियां उठती थी तो श्रोता मंत्र मुग्ध हो जाते थे। मन्ना डे पिछले काफी वर्षो से बीमार चल रहे थे। उनका बेंगलूर में इलाज चल रहा था। दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित मन्ना डे उन गायकों में रहे, जिनकी एक समय बॉलीवुड में तूती बोलती थी।

पचास और साठ के दशक में अगर हिंदी फिल्मों में राग पर आधारित कोई गाना होता, तो उसके लिए संगीतकारों की पहली पसंद मन्ना डे ही होते थे। उनके 94 वें जन्मदिन पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने उनसे मुलाकात की उन्हें मुबारकबाद दी थी। बॉलीवुड में हरफनमौला गायक कहे जाने वाले मन्ना डे के निधन से एक युग का अंत हो गया है। मन्ना डे को 1971 में पद्मश्री और 2005 में पद्म विभूषण से नवाजा जा चुका है। 2007 में उन्हें प्रतिष्ठित दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्रदान किया गया।

मन्ना डे ने यूं तो बॉलीवुड में हजारों गाने गाए। लेकिन उनके गाए दस गीत ऐसे हैं जिन्हें हमेशा से याद किया जाता रहा है।

1. जिंदगी कैसी है पहेली (फिल्म- आनंद)

2. एक चतुर नार करके श्रृंगार (फिल्म- पड़ोसन)

3. लागा चुनरी में दाग (फिल्म- दिल ही तो है)

4. कसमें वादे प्यार वफा (फिल्म- उपकार)

5. तू प्यार का सागर है (फिल्म- सीमा)

6. तुझे सूरज कहूं या चंदा (फिल्म- एक फूल दो माली)

7. यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी (फिल्म- जंजीर)

8. ये रात भीगी भीगी (फिल्म- चोरी चोरी)

9. ऐ मेरी जोहरा जबीं (फिल्म- वक्त)

10. प्यार हुआ इकरार हुआ है (फिल्म- श्री 420)

देश को सदैब इस महान गायक पर नाज रहेग। 

Wednesday, August 15, 2012

राष्ट्रीय प्रसंग

आज ही जुलाई-सितम्बर माह का राष्ट्रीय प्रसंग मिला। चर्चित पत्रकार साहित्यकार भाई विकास कुमार झा के सम्पादन में प्रकाषित यह पत्रिका अपने साहित्यिक स्वरूप के साथ पाठकों को खूब रिझा रहा है। कई पत्रिकाओं को साहित्य से समाचार-विचार की ओर जाते देखा है, परन्तु जब राष्ट्रीय प्रसंग का रुझान समाचार-विचार से साहित्य-संस्कृति की ओर देखा तो अच्छा लगा।  इस अंक में ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित, कन्नड़ साहित्य को विष्व दृष्टि प्रदान करने वाले प्रसिद्ध साहित्य साधक यू.आर. अनंतमूर्ति का साक्षात्कार ‘विद्रोही व्यास’ शीर्षक से प्रकाषित हुआ है। आवरण पृष्ठ प्रस्तुत है।